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कविता

विश्वग्राम के गलियारों से

अश्वघोष


अभी-अभी
लौटे हैं हम भी
विश्वग्राम के गलियारों से।

हमने देखा मृगतृष्णा का,
जादूवाला एक समंदर
तैर रही थी चिंतित तृष्णा,
घबराई-सी उसके अंदर
छीन रही थी
‘गति’ को पगली,
दुनिया भर की रफ्तारों से।

देख रहे थे सबको सब ही,
प्रेम और शक की आँखों से।
भड़कीली खुशबू आती थी,
अहंकार मिश्रित साँसों से
हाव-भाव से
हमको तो सब,
दिखते थे वे बंजारों से।

हम तो रिश्तों के भूखे थे,
लेकिन रिश्ते थे बेमानी,
चेहरे से ही लगते थे सब,
निराकार, गूँगे, अभिमानी
ऐसा लगा कि
टकराए हों, हम
पत्थर की दीवारों से।
 


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